तेनालीराम को राज कृष्णदेव राय के दरबार में विशेष सम्मान हासिल था। इसलिए, उनसे जलने वालों की राजमहल में कमी न थी। एक समय की बात है, विजयनगर राज्य के हालात अच्छे न थे। राज्य पर पड़ोसी देश के हमला करने का खतरा मंडरा रहा था। ऐसे समय में एक दरबारी ने सोचा कि महाराज को तेनालीराम के खिलाफ भड़काने का यह सबसे अच्छा मौका है।
एक दिन महाराज कृष्णदेव राय अपने बाग में बैठे कुछ सोच रहे थे कि तभी वहां एक कुटिल दरबारी पहुंच गया। उसने राजा से कहा कि महाराज अगर आप गुस्सा न करें, तो आपको एक बात बताना चाहता हूं। राजा बोले निडर होकर बोलो। दरबारी बोला कि आप जानते नहीं, लेकिन तेनालीराम पड़ोसी राज्य से मिला हुआ है। वो समय-समय पर राज दरबार की गुप्त बातें पड़ोसी देश के राजा को देता रहता है।
यह सुनते ही महाराज गुस्से से आग बगुला हो गए और बोले, “मूर्ख! तेनाली राम के बारे में ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म आनी चाहिए। वो विजयनगर का सबसे वफादार नागरिक है और देशभक्त भी है।” इस पर दरबारी बोला, “यह झूठ है महाराज, उसने आपकी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। इसलिए, आपको उसकी कोई चालबाजी दिखाई नहीं देती है, लेकिन मुझे पक्की खबर मिली है।” दरबारी के इतने विश्वास के साथ कहने पर राजा को भी थोड़ा-थोड़ा तेनालीराम पर शक होने लगा।
राजा ने तुरंत तेनालीराम को अपने द्वार में बुलाया और उससे पूछा कि क्या तुम पड़ोसी देश के राजा के गुप्तचर हो? तेनालीराम को महाराजा से इस सवाल की उम्मीद न थी। तेनालीराम इसका जवाब न दे सके और रोने लगे। राजा ने कहा, “तुम्हारी चुप्पी का मतलब यह है कि जो हमने सुना वो सच है।” तेनालीराम बोले, “महाराज, मैं आपसे क्या कह सकता हूं। आप मुझे अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए आप जो चाहे निर्णय ले सकते हैं।” यह बात सुनकर महाराज कृष्णदेव गुस्से लाल हो गए और बोले, “जाओ, जिस राजा की चापलूसी करते हो उसी के साथ रहो। विजयनगर राज्य तुम्हें छोड़ना होगा।”
राजा के मुंह से ऐसे कठोर वचन सुनकर तेनाली राम वहां से चल दिए। वह पड़ोसी राजा के दरबार में पहुंचे और उसकी तारीफ में उन्होंने कई गीत गाए। तेनालीराम की प्रशंसा से पड़ोसी राजा बहुत खुश हुआ और उससे उसका परिचय मांगा। तेनालीराम ने कहा, “मैं विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय का निजी सचिव हूं।” राजा बोले, “विजयनगर तो हमारा दुश्मन है, फिर तुम वहां के निवासी होकर मेरे दरबार तक कैसे चले आए, क्या तुम्हें डर नहीं लगा?” तेनालीराम बोले, “आप हमें दुश्मन मानते हैं, जबकि हमारे राजा आपको दोस्त मानते हैं।”
पड़ोसी राजा ने चौंककर पूछा, “लेकिन हमारे दरबारी तो कहते हैं कि कृष्णदेव राय हमें दुश्मन मानते हैं।” तेनालीराम बोले, “विजयनगर के दरबारी भी राजा को ऐसे ही भड़काते हैं, लेकिन हमारे राजा उनकी बातों में नहीं आते। वो तो आपकी तारीफ करते हैं। उनका कहना है कि पड़ोसी से दुश्मनी रखना कोई अच्छी बात नहीं है।”
पड़ोसी देश के राजा को तेनालीराम की बातें अच्छी लगीं। वो बोले, “कहते तो तुम ठीक हो, लेकिन हम तुम्हारी बात कैसे मान लें?” तेनाली राम बोले, “मैं खुद उनका निजी सचिव हूं और उन्होंने मुझे शांति प्रस्ताव लेकर भेजा है।”
पड़ोसी राजा को तेनाली राम की बात पर यकीन हो गया और बोले, “तो अब हमें आगे क्या करने चाहिए?”
तेनालीराम ने सलाह दी कि एक संधिपत्र और कुछ उपहार विजयनगर राज्य पहुंचाएं और आगे बढ़कर विजयनगर से मित्रता स्वीकार करें। राजा को तेनालीराम का सुझाव बहुत पसंद आया। उन्होंने उपहारों की तैयारी शुरू करवा दी।
उधर, राजा कृष्णदेव को तेनाली राम की बेगुनाही का पता चल गया था और वो अपने व्यवहार पर बहुत पछता रहे थे। अगले दिन उन्होंने देखा कि दरबार में तेनालीराम और पड़ोसी राजा के दूत संधि का प्रस्ताव लेकर हाजिर थे। उनके साथ बहुत से उपहार भी थे। राजा ने तेनालीराम को प्रेमपूर्वक देखा। उन्हें मन ही मन विश्वास हो गया था कि दुश्मनी को दोस्ती में बदलने का काम सिर्फ तेनालीराम ही कर सकता है।
कहानी से सीख
इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि ईमानदारी का परिणाम एक न एक दिन जरूर मिलता है। साथ ही किसी की भी बात पर आंखें बंद करके भरोसा नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से हमेशा खुद का ही नुकसान होता है।
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