‘भक्तमाल’ पढ़ते हुए न जाने कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। भागवत प्रेम में ही कई महात्मा हर दम मग्न रहते थे। इस तरह की लग्न और भक्ति बड़े ही तप से प्राप्त होती है। क्या मुझसे वैसा तप नहीं हो पाएगा? जीवन में भक्ति से बड़ा क्या कोई सुख है? आभूषणों और धन-दौलत से जो प्रेम हो वो क्या प्रेम? इनका तो नाम सुनते ही मुझे बुखार सा हो जाता है। सुशीला ने इन आभूषणों और फूलों से मुझे कितना सजाया था। उसे मैंने मना भी किया था ये सब करने से, लेकिन वो मानी ही नहीं। इस शृंगार के दौरान जितना हम लोग हंसे थे बाद में मुझे उतना ही रोना पड़ा।
आखिर किसी का पती ऐसा होता है, जो अपनी पत्नी को सजा हुआ देखकर नाराज हो जाए। मेरे पति ने तो मुझे सजा-धजा देखकर गुस्सा किया और कहा कि तुम मेरा परलोक बिगाड़ दोगी। क्या किसी के पति ऐसे होते हैं, जो अपनी पत्नी की खूबसूरती और शृंगार देखकर गुस्सा करने लगें? उनके बातें सुनकर मन में तो होता है कि जहर ही खा लूं, लेकिन फिर मैंने नीचे जाकर ‘भक्तमाल’ पढ़ना शुरू कर दिया। फिर मन ही मन ठान लिया कि अपने इस शृंगार को सिर्फ बांके बिहारी को ही दिखाऊंगी और उनकी ही दिन रात सेवा करूंगा। कम-से-कम वो तो मेरे शृंगार से पति की तरह नहीं जलेंगे।
भगवान मैंने हमेशा से ही अपने पति को अपना इष्ट मानना चाहा। सोचा कि उन्हें किसी तरह का दुख न दूं और हरदम उनकी ही सेवा करूं। अब क्या करूं सारा दोष मेरे नसीब का ही है। वो तो निर्दोष हैं। मेरे भाग्य में जैसा लिखा है मैं वो सब भोग रही हूं। इतना सब पता होने के बाद भी जब भी उन्हें देखती हूं, तो मन में दुख होता है। जब वो कुछ दिनों के लिए बाहर चले जाते हैं, तो मन का बोझ कुछ कम हो जाता है। उनके न होने से हंसने-खेलने और जीवन को जीने लगती हूं। फिर जब कुछ दिनों बाद वो लौट आते हैं, तो उसी तरह का सन्नाटा और दुख छा जाता है।
मेरे मन में होता है कि वो मेरे पिछले जन्म के दुश्मन रहे होंगे और उस दुश्मनी का बदला लेने के लिए उन्होंने मुझसे विवाह किया होगा। तभी न मेरा मन उन्हें देखते ही उदास हो जाता है और उनकी सूरत मुझे बिल्कुल नहीं भाती। शायद इसी वजह से वो मुझे देखकर जलते रहते हैं। विवाह न किया होता, तो शायद आज सुखी होती। किन्तु दुनिया का दस्तूर है कि बेटी को किसी-किसी न पुरुष के साथ जन्मों के लिए बांध दिया जाता है।
यह क्या जानें कि एक युवती अपने पति को लेकर कितने सपने संजोकर रखती है। उसके लिए उसका पति कितना खास होता है, लेकिन यहां सब उल्टा है। इन्हें देखते ही मेरे सीने में जलन सी होने लगती है। कभी इन्हें देखकर आंखों को वो शीतलता नहीं मिली, जो पति को देखकर एक युवती को मिलनी चाहिए। उधर, सुशीला को देखती हूं, तो दुख और बढ़ जाता है। वो हमेशा हंसती-मुस्कुराती है। कभी अपनी गरीबी का रोना नहीं रोती। न उसके पास कपड़े अच्छे हैं और न ही गहने। मकान भी छोटा सा है। मन में होता है कि काश! मैं अपना धन देकर उसकी परेशानियां ले लेती। फिर होता है कि उसका पति ही उसका सबसे बड़ा धन है। उसी से सुशीला को पूरी दुनिया का सुख मिल जाता होगा।
सालों से इस सवाल को मन में दफन करने के बाद होते-होते एक दिन मुझसे रहा न गया। आखिर मैंने अपने पति से यह सवाल कर ही लिया कि आपने मुझसे शादी क्यों की थी? इस सवाल को सुनते ही मेरे पति ने मुंह बना लिया। वो चिढ़ते हुए बोले, “अपना घर-परिवार संभालने के लिए और क्या? भोग के लिए नहीं? इतना सुनते ही मैंने पूछा, “क्या मैं सिर्फ इस घर का ख्याल रखने के लिए हूं?”
उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। फिर मेरे मन में हुआ कि पहले इस घर का सारा सामान जहां-तहां पड़ा रहता था। नौकर सब पूरा पैसा बर्बाद करते थे। अब मैं आ गई हूं तो इन सबका ख्याल रखना ही मेरा धर्म है और मुझे यह सोचकर खुश होना चाहिए कि इतनी संपत्ति मेरे पास है।
पहले मैं पूरे घर का ख्याल इनके बिना कहे रखती थी, लेकिन अब कुछ नहीं करूंगी। ऐसे घर की किसी भी वस्तु को मैं आगे से हाथ नहीं लगाऊंगी। लेकिन, कोई पुरुष विवाह सिर्फ घर संभालने के लिए थोड़ी करता है। उन्होंने जरूर ये जवाब मुझे गुस्से में चिढ़कर दिया है। वैसे सुशीला ठीक ही कहती थी कि एक घर महिला के बिना अधूरा होता है। ठीक उसी तरह से जैसे एक पिंजरा बिना किसी चिड़िया के खाली लगता है।
मैं समझ नहीं पाती हूं कि आखिर इन्हें मुझपर इतना संदेह क्यों होता है। मैं किसी से बात तक नहीं करती और न ही कहीं बाहर आती-जाती हूं। ऐसे में शक करने की कोई वजह भी नहीं है। क्या इन्हें समझ नहीं आता कि मैं घर की इज्जत और मान-मर्यादा के बारे में सब कुछ समझती हूं। किसी भी तरह की गलत हरकत करने की तो दूर मैं उसके बारे में सोच भी नहीं सकती हूं। कभी-कभी मुझे लगता है कि आधे से ज्यादा उम्र निकल जाने पर विवाह करने वाले बुजुर्ग लोगों का यही हाल होता होगा। बेवजह ही अपनी पत्नी पर शक करते होंगे।
सुशीला के बहुत बार कहने पर आज मैं उसके साथ ठाकुर जी की झांकी के दर्शन करने के लिए जाने वाली थी। मैं अपने बाल संवार ही रही थी कि तभी मेरे पति कहीं से आ गए। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा, “किधर जाने की तैयारी हो रही है?” मैंने जवाब में कहा कि ठाकुर जी की झांकी आज निकल रही है उसी को देखने के लिए सुशीला के साथ जाना है। इतना सुनते ही वो गुस्से में बोले कि तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अपने पति की जिससे सेवा नहीं हो सकती है, उसे भगवान के दर्शन से भी कोई लाभ नहीं मिलता है। उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं महिलाओं को अच्छे से।
उनकी यह बात सुनते ही मुझे बहुत बुरा लगा। गुस्से में मैंने कपड़े बदल लिए और चुपचाप बैठ गई। मन में हुआ कि उसी वक्त घर छोड़कर चली जाऊं। फिर देखती हूं कि कैसे रोकते हैं, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि जा नहीं पाई। इनके मन में हमेशा ये होता है कि मुझे हरदम खुश रहना चाहिए, क्योंकि मैं इतने बड़े घर और दौलत की मालकिन हूं। मुझे हरदम इनका गुणगान करना चाहिए, लेकिन यह समझते नहीं हैं कि धन-दौलत ही सबकुछ नहीं होता है।
अब ये तीन दिन से बीमार हैं। उन्हें निमोनिया हो गया है और कितने दिनों से यह करहा रहे हैं, लेकिन मैं इन्हें एक बार भी देखने नहीं गई। सभी घर में मौजूद नौकर उनका ख्याल रख रहे थे, लेकिन मेरे दिल में किसी तरह की करुणा इनके लिए नहीं आई। मेरा मन इतना कठोर नहीं था, लेकिन जिस तरह से इन्होंने मुझे इस घर में कैदी की तरह रखा, हरदम शक किया और एक पल भी सुख नहीं दिया, उसके बाद इनके लिए दया मन में नहीं आती है।
मन में होता है कि मुझे दिए गए दुखों का भगवान ने इन्हें दण्ड दिया है। अगर कोई समझे कि महिला को यूं ही किसी पुरुष के गले बांध दें और उसे किसी भी तरीके से रखें सो पूरी तरह गलत है। सुना है कि वो अपनी बीमारी का दोष मुझे ही दे रहे हैं, लेकिन मुझे परवाह नहीं है। ये चाहें, तो किसी को भी अपना धन-दौलत दे सकते हैं। इसकी मुझे बिल्कुल जरूरत नहीं और न ही लोभ है।
होते-होते एक दिन वो गुजर गए। आज उनको गए तीन दिन हो चुके हैं। मैंने उनके जाने के बाद चूड़िया नहीं तोड़ीं। मैं सिंदूर तो पहले भी नहीं लगाती थी और अभी भी नहीं लगाती। मेरे बुजुर्ग पति के बेटे ने ही उनका अंतिम संस्कार किया। घर के सभी लोग तरह-तरह के मुझे ताने देते हैं। मेरे बंधे हुए लंबे बाल देखकर सुनाते हैं, लेकिन मुझे जरा भी बुरा नहीं लगता है। ऊपर से मैं सभी को चिढ़ाने के लिए रंग-बिरंगी साड़ियां भी पहन लेती हूं। मेरे मन में होता है कि मैं इस कैद से रिहा हो गई हूं।
एक दिन मैं सुशीला के घर गई। उसके घर में किसी तरह की सुख-सुविधा नहीं थी। चारपाई तक वहां पर नहीं थी, लेकिन वो इतनी खुश थी कि उसे देखते ही मन में ऊर्जा का संचार हो जाता है। इन लोगों को गरीब और नीच कैसे समझें, जो हरदम मुस्कुराते रहते हैं और प्रेम भरी बातें करते हैं। भले ही यह आनंद पल भर का था, लेकिन इससे जीवन सफल सा लगता है।
फिर एक दिन मैंने सुशीला से पूछा कि अगर तुम्हारे पति किसी दिन परदेश नौकरी के लिए चले गए, तो क्या तुम उनकी याद में रो-रोकर अपनी जान दे दोगी।
सुशीला जवाब में बोली, “नहीं, जान तो नहीं दूंगी, लेकिन उनकी याद से हरदम मन आनंदित होता रहेगा। भले ही वो सालों परदेश में रह लें, लेकिन उनकी याद हमेशा ही मुझे खुशी देती रहेगी।
मैंने भी कहा कि सुशीला मुझे भी ऐसी ही खुशी चाहिए, जिसके आनंद में हमेशा मैं झूमती और गाती रहूं। ऐसा आनंद जो कभी कम ही न हो।
मन आजकल काफी परेशान और चंचल था। होता था कि कहीं एकदम उड़ जाऊं। भक्ति के ग्रंथों को पढ़ने का भी मन न था और न ही बाहर कहीं सैर करने का। ऐसा लगता था कि मन को पता ही नहीं उसे क्या चाहिए, लेकिन मेरे दिल में अपने पुराने दुख ही चल रहे थे। अब मुझे किसी की भी निंदा से फर्क नहीं पड़ता था। दिमाग में यह बात भी उठ रही थी कि मेरे माता-पिता ने पैसों के लोभ में बूढ़े से विवाह करवा दिया और उसने भी सिर्फ अपनी जिद पूरी करने के लिए मेरी मांग में सिंदूर डाला, लेकिन जिंदगी भर शक ही करता रहा।
एक दिन घर के सभी लोग सो रहे थे। कमरे में मेरा दम घुट रहा था, इसलिए मैं दौड़कर उस घर से बाहर की ओर भाग गई। तभी मुझे एक बुढ़िया दिखी। मेरे मन में हुआ कि कहीं वो कोई चुड़ैल न हो। तभी बुढ़िया ने कहा कि किसका रास्ता देख रही हो?
मैंने जवाब में कहा, “मरने की राह देख रही हूं।”
बुढ़िया बोली अभी तुम्हारे नसीब में मौत नहीं है। तुम्हें कई सारे सुख भोगने हैं।
मैंने भी चिढ़ते हुए उस बुढ़िया से पूछा कि इतनी रात में तुम किस्मत की लकीरें पढ़ लेती हो?
“आंखों से थोड़ी पढ़ती हूं। अक्ल से पढ़ लेती हूं। ये काम करते हुए ही सारी उम्र बीती है। तुम्हारे अब अच्छे दिन आ रहे हैं। मैं बस यही चाहती हूं, जिसकी जो मनोकामना हो वो उसे मिल जाए”, जवाब देते हुए बुढ़िया ने कहा।
मैंने कहा कि मुझे कोई धन-दौलत नहीं चाहिए और जो मैं चाहती हूं, वह तुम नहीं दे सकती हो।
तब बुढ़िया ने कहा, “मैं जानती हूं तुम्हें जीवन में सिर्फ प्रेम चाहिए और मैं यह तुम्हें दिला सकती हूं। मैं तुम्हें प्यार की नाव में बैठा सकती हूं”
उस अम्मा की बातें सुनकर मुझे लगा जैसे कि वो स्वर्ग से मेरी मदद करने के लिए आई हो। मैंने पूछा, “अम्मा तुम्हारा घर कहां है?”
उसने कहा कि पास में ही है बेटा। मैं उस अम्मा के पीछे-पीछे चलने लगी।
बुढ़िया के पीछे चलते-चलते मुझे पता लगा कि वो किसी स्वर्ग से आई मेरी मददगार नहीं, बल्कि एक डायन ही है। कहां मैं अमृत की तलाश में थी और जहर मिल गया। मैं तो सुशीला जैसा सुख पाना चाह रही थी, लेकिन कहां डायन की चपेट में आ गई। मेरी इस हालत के जिम्मेदार लोभी माता-पिता और मुझे अपनी पत्नी बनाने के ख्वाब देख रहा वो वृद्ध है, जिसने मुझे अपनी जिद के लिए पत्नी बनाया।
मैं अपनी ये आत्मकथा कभी न लिखती, लेकिन मैं चाहती हूं कि सभी माता-पिता ये समझ लें कि पैसा जीवन में सबसे बड़ा नहीं होता है। मेरी चाहत है कि सब लोगों को मेरी आत्मकथा से मालूम हो कि लड़कियों का विवाह यूं ही किसी से नहीं कर देना चाहिए। किसी भी लड़की का गला इस तरह से वृद्ध से विवाह करके न घोंट दो। अब मेरे जीवन में कुछ भी नहीं बचा। सब कुछ सिर्फ मां-बाप के एक फैसले से खत्म हो गया।
कहानी से सीख :
बेटी का विवाह हमेशा योग्य वर से ही करना चाहिए। ऐसा न करने से उसका जीवन नरक के समान हो सकता है। योग्य वर न मिले, तो सही वक्त के लिए रुकिए, लेकिन आनन-फानन में किसी से भी यूं ही बेटी का विवाह न करें।
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