कौन है लैला, वह कहां से आई है, यह सब किसी को मालूम न था। तेहरान की चौक पर एक रोज लोगों ने खूबसूरत सुंदरी को हाथों में डफली लिए गजल गाते और झूमते देखा।
देखते ही देखते पूरे तेहरान में एक खूबसूरत महिला की चर्चा होने लगी। वह कोई और नहीं, बल्कि लैला ही थी। लैला की सुंदरता को लफ्जों में बताने के लिए शायद शब्द भी कम पड़ जाए। उसकी सुंदरता की मात्र कल्पना ही की जा सकती थी।
लैला किसी रंग-बिरंगे फूल से कम न थी। उसकी आवाज बांसुरी की मधुर धुन की तरह थी। जब लैला मस्ती में गाती थी, उस समय पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता था। लैला कविता, गीत-संगीत और सुंदरता की मनोरम मूर्ति सी थी। वह अपने गीतों में आने वाले वक्त का हाल सुनाती थी। कहती थी एक समय आएगा जब युद्ध-संघर्ष का अंत हो जाएगा, देश में प्रेम-संतोष का राज होगा। वह गीतों के जरिए राजा से सवाल भी करती थी और सोई हुई प्रजा को भी जगाती थी। सारा तेहरान उसकी अदा पर फिदा था।
लैला गरीब-कमजोर के लिए आशा के दीपक की तरह, रईसों के लिए मार्गदर्शक, दिलदारों के लिए परी और सत्ताधारियों यानी राज-पाठ संभालने वालों के लिए धर्म का संदेश थी। उसके एक इशारे पर नगर की जनता आग में भी कूद सकती थी। लैला के गुण और उसकी सुंदरता पूरी जनता को आकर्षित कर चुकी थी।
एक समय की बात है, एक बार तेहरान का शहजादा अपने घोड़े पर बैठकर नगर में निकला। इत्तेफाक ऐसा कि लैला उसी वक्त मधुर गीत गुनगुना रही थी। शहजादे ने आवाज सुन घोड़ा रोक दिया। वह स्तब्ध हो गया और काफी देर तक बीच सड़क पर रुक कर गीत सुनता रहा। कुछ देर बाद शहजादा घोड़े से उतरा और रोने लगा। आंखों में आंसू लिए वह उस आवाज की ओर चलने लगा। सामने लैला को देख वह दौड़ा और उसके चरणों पर झुक गया। वहां खड़े आसपास मौजूद लोग पीछे हट गए।
लैला घबराकर बोली, “कौन हो तुम?”
शहजादे ने कहा, “गुलाम हूं तुम्हारा।”
लैला, “आपको मुझसे क्या चाहिए?”
शहजादे ने कहा, “आपकी खिदमत का हुक्म चाहता हूं। मेरे छोटी सी झोपड़ी में अपने कदम रखकर उसे रोशन कर दीजिए।”
लैला, “मेरी आदत में यह सब नहीं है।”
शहजादा दुखी होकर वहीं रुक गया। लैला ने फिर से गाना शुरू किया। उसका गला कांपने लगा, ऐसा लगा मानो जैसे वीणा के तार टूट गए हो। उसने मुड़कर शहजादे को देखा और बोली, “तुम यहां ऐसे मत बैठो।”
वहां मौजूद दर्जनों लोगों ने लैला को बार-बार बताया कि ये तेहरान नगर के शहजादे हैं। इनका नाम नादिर है, लेकिन लैला को इससे तनिक भी फर्क नहीं पड़ा। वह बोली, “बड़ी अच्छी बात है कि ये शहजादे हैं, लेकिन ये यहां क्या करेंगे? उनके पास महल में महफिल है। शान-ओ-शौकत है फिर वे भला यहां क्यों रहेंगे? जिन्हें गम है और जो अपने दिल के दर्द को बयां नहीं कर पाते हैं, मैं उनके लिए गाती हूं, न कि किसी के शौक के लिए।”
शहजादे ने कहा, “लैला मैं तुम्हारे इस मधुर संगीत पर सब कुछ कुर्बान कर सकता हूं। मैं अब तक शौक का गुलाम था, लेकिन तुम्हारी आवाज ने मुझे दर्द का स्वाद चखा दिया है।”
लैला कुछ बोली नहीं और फिर से गाने लगी। इस बार उसकी जुबान से शब्द नहीं फूटे। उसकी आवाज पर उसका काबू नहीं था, वह रुक गई। वो डफली लेकर वहां से जाने लगी। सभी लोग अपने घर जाने लगे। जैसे ही लैला अपनी झोपड़ी के करीब खड़े पेड़ तक पहुंची तो उसने देखा कि कोई उसके पीछे आ रहा था। वह मुड़ी और बोली, “कौन हो तुम?”
दरअसल लैला का पीछा करते-करते शहजादा नादिर उसके घर तक आ पहुंचा था।
लैला बोली, “क्या तुम नहीं जानते कि मैं अपने आशियाने में किसी व्यक्ति को भी नहीं आने देती हूं?”
शहजादे ने कहा, “मैं ये जानता हूं।”
लैला बोली, “सब जानते हो फिर किस उम्मीद में यहां तक आए हो?”
इस बार शहजादे ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर की चुप्पी के बाद लैला बोली, “कुछ खा-पीकर आए हो या नहीं?”
शहजादे ने कहा, “अब न तो भूख है और न ही प्यास जान पड़ती है।”
लैला बोली, “चलो, आज आपको गरीब के हाथ का स्वाद चखाऊं।”
शहजादा इनकार नहीं कर पाया। लैला न बाजरे की रोटी परोसी।
इस बार बाजरे की रोटी में भी शहजादे को स्वाद मिला। गरीब झोपड़ी में भी उसे आनंद आ रहा था। वह एक सुकून महसूस कर पा रहा था, जो शायद आज तक उसने कभी नहीं किया था।
शहजादे का खाना खत्म होते ही लैला बोली, “आधी रात हो चुकी है। अब तुम्हें जाना चाहिए।”
शहजादा बेचैन हो गया। उसने जाने से मना कर दिया और कहा, “अब मैं भी यहीं रहूंगा।”
अब शहजादा लैला का साथी बन गया। जहां-जहां लैला जाती शहजादा उसके साथ जाता था। लैला गाती और वह सुनता था। जब यह खबर बादशाह को लगी तो उन्होंने शहजादे को बहुत समझाया, लेकिन शहजादे ने किसी की एक न सुनी। वहीं दूसरी ओर, अब लैला के आवाज में भी वो पहले वाला जादू न था।
लैला अभी भी गाती, झूमती थी। लोग आते थे, लेकिन पहले वाली बात नहीं थी। जो लैला कभी दूसरों के दिल के दर्द गाती थी, अब वह अपना मन बहलाने के लिए गाने लगी। इस तरह लगभग छह महीने बीत गए।
एक रोज लैला गाने जाने के लिए तैयार नहीं हुई। तो शहजादे ने कहा, “आज जाना नहीं है क्या?”
लैला बोली, “सच बताना शहजादे, क्या अब भी तुम्हें मेरे गाने पहले जैसे अच्छे लगते हैं?”
शहजादे ने कहा, “मुझे पहले से भी कई गुना ज्यादा मजा आता है।”
लैला झट से बोली, “लेकिन लोगों को अब मजा नहीं आता। अब मैं कभी नहीं गाऊंगी।”
शहजादे ने कहा, “हां इसका मुझे भी ताज्जुब है।”
लैला बोली, “पहले मेरे दिल में सभी के लिए समान जगह थी। पहले मेरी जो आवाज निकलती थी वह सभी के दिलों तक पहुंचती थी, लेकिन अब तुम औरों से अलग हो गए हो। आज से तुम मेरे सब कुछ हो। अब से मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। इस झोपड़ी में आग लगा दो।”
फिर पूरे तेहरान में जश्न का माहौल हो गया। घर-घर मिठाइयां बन रही थी। शहजादे और लैला का विवाह हो रहा था। हजारों लोग मस्जिदों में एक साथ नए जोड़े के लिए लंबी उम्र की दुआएं मांग रहे थे। इस मौके पर लैला ने बिल्कुल सादे कपड़े पहन रखे थे। आभूषण का कोई नामोनिशान नहीं था। महिलाएं लैला को दुआएं और मुबारकबाद दे रही थी। जिस पर एक सुर में वहां मौजूद लोग आमीन-आमीन कह रहे थे।
देखते ही देखते कई साल बीत गए। शहजादे नादिर अब नगर के बादशाह बन चुके थे और लैला उनकी मल्लिका। उस दौर से पहले ईरान का राजपाठ कभी इतना अच्छा नहीं था। बादशाह नादिर और मल्लिका लैला दोनों ही अपनी प्रजा को अपने करीब मानते थे और उनका हमेशा भला सोचते थे। नादिर राजसत्ता की वकालत करता तो लैला प्रजा की ओर से दलील देती। जब कभी राज-पाठ से थोड़ा वक्त मिलता तो दोनों एक साथ गाते-बजाते थे।
कभी नादिर लैला की मान जाता, तो कभी लैला नादिर की सुन लेती। यह उनके सुखी वैवाहिक जीवन का उसूल था। उस समय जब बादशाहों और महलों में एक से अधिक बेगमों का बोलबाला हुआ करता था, उस वक्त तेहरान के बादशाह पर लैला का एकमात्र अधिकार था। लैला ने राज-पाठ की सारी कमान अपने हाथों में रख ली थी। अब सारा धन प्रजा के हित में खर्च किया जाता था।
सब बढ़िया था, किंतु प्रजा मन ही मन संतुष्ट नहीं थी। उन्हें ये डर था कि अगर ऐसा ही हाल ज्यादा दिनों तक चला तो वो दिन दूर नहीं कि राजा-प्रजा का भेद खत्म हो जाएगा। लैला और नादिर के लाख समझाने के बावजूद भी दोनों वर्गों का भेद मिटाने का नाम नहीं ले रहा था। लड़ाईयां और विवाद बढ़ते जा रहे थे। सामंत और ऊंचे वर्ग के लोग बादशाह नादिर को मारना चाह रहे थे, जबकि वहां की प्रजा लैला की दुश्मन बनती जा रही थी।
पूरे राज्य में अशांति का वातावरण था। एक रोज रात के समय बादशाह और मल्लिका आरामगाह में थे। शतरंज की बाजी चल रही थी। नादिर ने कहा, ‘लैला अब तुम्हारा प्यादा गया।”
लैला बोली, “ये लो शह। तुम्हारा खेल खत्म।”
नादिर ने कहा, “तुमसे हारने में जो खुशी मिलती है, वह जीत में बिल्कुल नहीं है।”
लैला, “शह बचाइए वरना अब अगली चाल से आपकी हार तय है।”
नादिर ने भौएं चढ़ाकर कहा, “तुमने राजा का अपमान किया है।”
इतने में लैला बोली, “दो बार मैंने आपको छोड़ दिया है। अब आप नहीं बचेंगे।”
नादिर ने कहा, “जब तक मेरे पास मेरा घोड़ा दिलराम है, तब तक मुझे कोई दुख नहीं है।”
लैला, “तो लाइए दिलराम को। हो गई आपकी मात।”
नादिर, “जब मैं तुम्हारे गुणों के सामने अपना दिल हार बैठा, तो अब मेरा प्यादा क्या चीज था। उसका अंत तो होना ही था।”
लैला बोली, “बातें मत बनाइए। आप हारे हैं, इसलिए शर्त के मुताबिक इस पत्र पर अपनी मोहर लगा दीजिए। फरमान में लैला ने यह लिखा था कि आयात कर कम करके आधा कर दिया जाए। शतरंज में हारने पर नादिर ने इस फरमान पर मोहर लगाने का वादा किया था। शर्त के मुताबिक बादशाह ने मुहर लगा दी और इसके साथ ही प्रजा को साल के तकरीबन पांच करोड़ के कर से छुटकारा मिल जाएगा। लैला मन ही मन ये सोचकर खुश हो रही थी कि जब प्रजा को इसकी जानकारी मिलेगी तो वो कितनी खुश होगी और उन्हें दुआएं देंगी।”
तभी अचानक राज-भवन में शोर मचा। अफरा-तफरी का माहौल हो गया। पूछने पर पता लगा कि गुस्साए लोगों की भीड़ आई है और वे राजभवन की दीवार तोड़कर अंदर आने की कोशिश कर रहे हैं। शोर बढ़ता ही जा रहा था। लैला एक कोने में चुपचाप खड़ी थी। नादिर को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। अंत में उसने लैला की तरफ देखकर कहा, “मैं सेना को बुलावा भेजता हूं।”
इतने में लैला बोली, “थोड़ा रुकिए। आखिर इन सभी लोगों से एक बार पूछिए तो कि ये चाहते क्या हैं?”
लैला की बात सुनते ही नादिर छत पर चढ़ गया और लैला भी उसके साथ आ पहुंची। दोनों छत पर खड़े थे। भीड़ की नजर उन पर गई। भीड़ चिल्लाई, “वो देखो लैला, छत पर खड़ी है।”
नादिर ने चिल्लाकर कहा, “यह ईरान की बदनसीबी है कि आज ये दिन आया। तुम लोगों ने राजभवन को क्यों इस प्रकार से घेरा है? आखिर क्यों तुमने बगावत की राह चुनी है, बताओ? मैं बादशाह-ए-तेहरान तुम सभी को हुक्म देता हूं इसी वक्त यहां से जाओ वरना यहां खून की नदियां बहा दी जाएगी।”
तभी भीड़ से एक विद्रोही निकला और बोला, “हम तब तक यहां से नहीं जाएंगे जब तक लैला इस महल से नहीं जाएगी।”
गुस्से में तमतमाकर नादिर ने कहा, “अल्लाह से डरो! मल्लिका का इस तरह अपमान करते हो, तुमलोगों को बिल्कुल शर्म नहीं है। लैला जब से मल्लिका बनी है उसने तुम लोगों को कितनी सुविधाएं दी हैं और तुम ऐसी बेअदबी कर रहे हो। कभी महल में आकर देखो कि मल्लिका कैसा जीवन जीती है। लैला वैसा भोजन खाती है जो तुम जानवरों को खिलाते हो। साज-सजावट तो दूर लैला का महल खाली-खंडहर है। लैला मल्लिका होकर भी फकीरों सा जीवन जीती है, दिन-रात प्रजा की सेवा में ही डूबी रहती है और तुम उसके साथ ऐसा बर्ताव कर रहे हो।”
नादिर बोल ही रहे थे कि विद्रोहियों में से किसी ने चिल्लाकर कहा, “मल्लिका हम सबकी दुश्मन है। हम लैला का चेहरा तक नहीं देखना चाहते।” इतने में नादिर ने चिल्लाकर कहा, “खामोश हो जाओ सब।” फरमान दिखाते हुए नादिर ने कहा, “ये देखो लैला ने तुम लोगों के लिए कितना सोचा। तुम लोगों का कर अब आधा हो गया है, फिर भी तुम उसके लिए ऐसी बातें कर रहे हो।”
हजारों लोग एक साथ बोले, “यह तो बहुत पहले ही माफ होना चाहिए था। हम अपनी मल्लिका के रूप में इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं।” बादशाह को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसे इस हालत में देख लैला बोली, “अगर अल्लाह की यही मर्जी है कि मैं डफली बजाऊं और गाना गाकर गुजर-बसर करूं तो मुझे इस बात का कोई दुख नहीं है। मैं फिर से एक बार अपनी आवाज से जनता का दिल जीत लूंगी।”
नादिर लैला को खोना नहीं चाहते थे। उसने घबराकर मीनार की घंटी बजाई, ताकि सैनिक बाहर मदद के लिए आएं और भीड़ को खाली कराएं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नादिर ने फिर दूसरी बार घंटी बजाई। इस बार भी कोई सैनिक बाहर नहीं आया। बादशाह नादिर ने तीसरी बार घंटी बजाई, एक भी सैनिक बाहर नहीं निकला। नादिर ने सिर पर हाथ रख लिया। वह समझ गया कि यह खतरे की घंटी है। अब खराब दिन आ चुके हैं। अब उसे जनता के कहे अनुसार काम करना ही पड़ेगा।
लैला नादिर को अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी थी। वह उसका हाथ पकड़े राजभवन के द्वार से बाहर आया। भीड़ दो हिस्सों में बंट गई। नादिर और लैला रात के अंधेरे में तेहरान के रास्तों पर चलने लगे। उन्होंने मस्जिद में पनाह ली, क्योंकि उन दोनों का अब कोई आश्रय नहीं था।
इस तरह दर-दर भटकते-भटकते पूरा साल बीत गया। दोनों ने समरकंद, बुखारा, बगदाद, हलब, काबिरा और अदन इन सारे देशों की खाक छान डाली। लैला की आवाज का जादू एक बार फिर काम आया। उसके गाते ही पूरे शहर में एक अलग ही हलचल सी मच जाती थी। दिनभर वे गाकर लोगों का मनोरंजन करते घूमते-खाते और कहीं रात बिताकर अगले दिन वहां से रवाना हो जाते थे।
प्रजा के बुरे बर्ताव से उनका मन बहुत दुखी था। लैला के मन में ये बात बैठ गई थी कि आप जिनके लिए अपना सबकुछ दे देते हैं, आगे चल कर वही आपका दुश्मन बन जाता है। जिसकी भलाई करो, आने वाले दिनों में वही बुराई करता है। किसी से भी इतना दिल नहीं लगाना चाहिए।
लैला के पास बड़े-बड़े रईसों, बादशाहों का बुलावा आता था, लेकिन लैला किसी के यहां नहीं जाती थी। इधर ईरान में शासन व्यवस्था अनियंत्रित थी। लोगों से तंग होकर रईस-धनवानों ने भी फौज जमा करनी शुरू कर दी थी। तभी राज्य में अकाल पड़ गया। लोग भूखे मरने लगे थे और व्यापार नष्ट होने लगा था।
सारा खजाना खत्म हो रहा था। जनता कमजोर हो रही थी और बड़े लोगों की शक्ति बढ़ती जा रही थी। आखिरकार एक दिन आया जब जनता ने घुटने टेक दिए। प्रजा ने जिन्हें नेता चुना, उन नेताओं को फांसी दे दी गई और राज्य में रईसों का दबदबा हो गया। उन्होंने राज-भवन पर कब्जा कर लिया। अब उन्हें नादिर की भी याद आने लगी। शक्तिशाली रईसों को लगा कि बीते समय में जो हुआ उसके बाद नादिर और लैला का जनता के लिए प्रेम मर गया होगा। अगर वे दोबारा सिंहासन पर बैठे तो भी शक्तिशालियों का ही कहा सुनेंगे। इसी उद्देश्य के साथ वे नादिर और लैला को मनाने के लिए निकल पड़े।
शाम का वक्त था, लैला और नादिर एक पेड़ के नीचे बैठकर आराम कर रहे थे। दोनों एकदम चुपचाप प्रकृति की सुंदरता को निहार रहे थे। तभी उन्हें लगा कि घुड़सवारों का काफिला उनके करीब आ रहा है। नादिर झटके में उठा और देखने लगा। तभी एक घुड़सवार उनके करीब आया और रुक कर सलाम किया। नादिर का चेहरा खिल गया। वह लैला की ओर देख कर चिल्लाया कि यह ईरान का आदमी है। इस बीच वह समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या चल रहा था।
लैला चिल्लाकर बोली, “सावधान हो जाओ और अपनी तलवार संभाल लो। क्या पता इसकी जरूरत पड़ जाए।”
घुड़सवारों ने एक साथ नादिर को फिर से सलाम किया। इस बार नादिर खुद को रोक नहीं पाया और उन्हें गले से लग लिया। घुड़सवार बोले, “बादशाह देश अपने स्वामी को खोज रहा है, आप हमारे साथ चलिए।”
नादिर ने कहा, “एक बार आप लोगों ने हमारी इज्जत ले ली। इस बार क्या जान लेंगे? मैं यहां बहुत ही आराम से हूं, मुझे परेशान मत करिए।” लोगों ने बार-बार साथ चलने की गुहार लगाई, लेकिन नादिर एक ही रट लगाए था। काफी मिन्नतों के बाद वह साथ जाने के लिए तैयार हो गया। तभी लैला बोली, “तेहरान की प्रजा मुझसे नाराज थी, आपसे नहीं। आप भले ही उन्हें माफी दे सकते हैं, लेकिन मैं नहीं।”
लैला के मुंह से ऐसी बातें सुनकर नादिर हैरान रह गया। उसे समझ नहीं आया कि लैला ऐसा क्यों कह रही है, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। दूतों के साथ वे दोनों तेहरान के लिए चल पड़े। नगर पहुंचते ही शक्तिशाली लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया। जबकि गरीब-कमजोर लोग चीख-पुकार रहे थे। लैला को अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था।
जिन लोगों की तकलीफ देखकर एक वक्त में लैला का कलेजा फटता था अब उनके जीने-मरने से लैला को कोई मतलब नहीं था। नादिर जब भी प्रजा की भलाई का काम करता लैला उसमें बाधा डाल देती थी। तीन साल इसी तरह बीत गए और प्रजा की स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती चली गई।
एक रोज नादिर शिकार पर निकला। शिकार के दौरान वह रास्ता भटक गया और अपने साथियों से बिछड़ गया। वह जंगल में काफी देर भटकता रहा, लेकिन उसे महल लौटने का कोई रास्ता न सूझा। अंत में वह खुदा को याद करते हुए एक रास्ते पर निकल पड़ा। सोचा कि कोई बस्ती या घर दिखे तो रात में आसरा लेकर सुबह महल का रास्ता पूछ, लौट आऊंगा।
मीलों चलने के बाद उसे एक गांव दिखा। जहां मात्र तीन-चार ही घर थे। तभी उसकी नजर वहां मौजूद एक मस्जिद पर पड़ी। बहुत रात हो गई थी, इसलिए बादशाह नादिर ने वहां रात बिताने की सोची। वहां एक फटी चटाई पड़ी थी, नादिर उसी पर सो गया।
अचानक आहट हुई और नादिर चौंक गया। उसने आंखें खोली और एक बूढ़े को सामने पाया। नादिर ने देखा कि वह बूढ़ा व्यक्ति सुबह की नमाज पढ़ रहा था। नादिर इतना थका था कि उसे पता ही नहीं चला कि सुबह हो गई थी।
वह शांत उस बूढ़े व्यक्ति को नमाज पढ़ता देखता रहा। बूढ़े ने नमाज पढ़ने के बाद दुआ मांगी। बूढ़े ने हाथ उठा कर कहा, “ए खुदा! तू गरीबों का मददगार है, बेसहारों का सहारा है। तू इस क्रूर बादशाह का अत्यचार देख रहा है। तू देख रहा है कि कैसे वो एक औरत के इश्क में इतना डूब गया है कि अपनी प्रजा को भूल गया है। खुदा तू उसे अपने पास बुला ले या तो फिर हमें अपने पास बुला ले। ये यातनाएं हमसे और न सही जाएंगी। ईरान अब इस अत्यचार से तंग आ गया है।”
आज से पहले बादशाह नादिर ने अपनी ऐसी आलोचना कभी न सुनी थी। दुआ के लफ्ज सुन कर बादशाह नादिर का खून सूख गया। उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे। नादिर वहीं सोया रहा, वह हिल भी नहीं पाया।
घटना के एक सप्ताह बाद तक नादिर सभा में नहीं आया। साथ ही उसने किसी सेवक से भी मुलाकात नहीं की। कमरे में पड़ा सोचता रहा कि आखिर क्या करूं? लैला से नादिर की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। वह कई बार उसके पास जाकर पूछती कि आखिर बात क्या है, क्यों वे इस तरह से बर्ताव कर रहे हैं। नादिर उसकी गोद में सिर रखता और रोने लगता। वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहा था। कई दिनों तक मन ही मन व्याकुल होकर अंत में उसने सोचा, “प्रेम अमर है, मैं और लैला दिल से जुड़े हैं। मुझे इस बादशाहत का लोभ नहीं है। मैं लैला के बिना नहीं जी सकता।”
वह कमरे से निकला और दौड़ते हुए लैला के कमरे में पहुंचा। देर रात हो चुकी थी, लेकिन द्वार खुला था। नादिर को समझ नहीं आया कि इस वक्त लैला कहां जा सकती है, वह डर गया। मन में कई सवाल आने लगे, लेकिन उसने आशा न छोड़ी और पूरा महल छान मारा। लैला कहीं नहीं थी। बादशाह नादिर मायूस हुए लैला के कमरे में लौट आए। हजारों बुरे ख्यालों के बीच नादिर लैला के बिस्तर पर लेट गया कि तभी उसका हाथ तकिए के नीचे रखे कागज के टुकड़े पर पड़ा। नादिर ने पर्ची उठाई, वह लैला का खत था।
नादिर ने पढ़ना शुरू किया। पहली लाइन पढ़ते ही उसकी आंखें छलक उठी। हिम्मत न हुई कि आगे पढ़े, लेकिन उसने खत पढ़ा। लैला ने लिखा था,
“मेरे प्रिय नादिर, मैं तुमसे अब हमेशा के लिए विदा लेती है। तुम्हें मेरी सौगंध है, तुम मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना। लैला तुमसे इश्क करती है, वह तुम्हारे प्यार की भूखी है तुम्हारे दौलत की नहीं। बीते हफ्ते से तुमने मुझसे निगाहें फेर रखी है। मेरी तरफ देखते तक नहीं हो। मेरे लिए इस सजा से बड़ी कोई सजा नहीं हो सकती। मैंने अब तक जो किया केवल तुम्हारी भलाई के लिए ही किया था। अब मैं तुम्हारे सामने भी गिर गई हूं। ये पांच साल मुझे हमेशा याद रहेंगे। मैं डफली लेकर आई थी, डफली लेकर ही जा रही हूं। अलविदा!” इतना पढ़ने के बाद नादिर लैला के गम में वहीं खड़ा रोता रह गया।
कहानी से सीख :
लैला कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि दुनिया में प्रेम से बड़ी कोई पूंजी और मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। संसार में सच्चा इंसान वही है जो दूसरों की तकलीफ और दुख को महसूस कर सकता है।
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