सिंदबाद ने अपनी छठी कहानी सुनाने के बाद सातवीं और आखिरी कहानी सुनानी शुरू की। अपनी आखिरी कहानी सुनाते हुए सिंदबाद ने कहा, ‘मैंने निश्चय किया था कि मैं आगे कभी जल यात्रा नहीं करूंगा। मेरी स्थिति भी इतनी हो गई थी कि कहीं आराम से बैठकर दिन गुजार सकूं। ऐसा सोचते हुए मैं अपने घर में खुशी से रहने लगा। एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ खाना खा रहा था, तभी एक नौकर आया और बोला, ’खलीफा के दरबार से एक सरदार आए हैं, वह आपसे बात करना चाहते हैं।’ मैंने अपना भोजन समाप्त किया और सरदार से मिलने बाहर आया। सरदार ने कहा, ‘खलीफा ने तुम्हें बुलावा भेजा है।’ इतना सुनने के बाद मैं उसके साथ जाने को राजी हो गया।
खलीफा के दरबार पहुंचकर मैंने जमीन को चूमा और प्रणाम किया। इतने में खलीफा ने बोला, ‘सिंदबाद, मैं चाहता हूं कि सरान द्वीप के बादशाह की ओर से भेजे गए पत्र के जवाब में मैं पत्र भेजूं। साथ ही उपहारों के बदले मेरी ओर से उन्हें उपहार भी भेजूं। तुम मेरा संदेशा लेकर सरान द्वीप के बादशाह के पास जाओ।’
मैं असमंजस में पड़ गया। मैंने हाथ जोड़ लिए और कहा, ‘हे मालिक, मुझमे इतना साहस नहीं है कि आपकी आज्ञा का उल्लंघन करूं, किंतु बीते दिनों की समुद्री यात्राओं के बाद मैंने यह निश्चिय किया था कि अब यात्रा नहीं करूंगा। किसी जहाज पर पांव नहीं रखूंगा।’ मैंने खलीफा को अपनी बीती छह यात्राओं की मुश्किलों से भरी कहानी सुनाई। यात्रा के बारे में सुनकर खलीफा आश्चर्यचकित जरूर हुए, लेकिन अपने फैसले पर अड़े रहे। खलीफा ने कहा, ‘तुम बहुत कष्ट में हो, लेकिन मेरी आग्रह पर एक आखिरी बार यात्रा कर लो, क्योंकि यह काम तुम्हारे अलावा कोई और नहीं कर सकता है।’
अंत में मैंने हार मान ली और खलीफा के कहे अनुसार यात्रा के लिए तैयार हो गया। मेरा जाना तय हुआ। खलीफा ने मुझे रास्ते के लिए चार हजार दीनार दिए और कहा, ‘घर जाकर तैयारी कर लो।’ मैं घर लौटा सामान बांध लिया। अगली रोज मैं खलीफा के दरबार पहुंचा।
मुझे खलीफा के सामने हाजिर किया गया। खलीफा मुझे देख अति प्रसन्न हुआ और मेरा हाल पूछा। मैंने उसका धन्यवाद किया और उपहार, सामान लेकर बसरा बंदरगाह के लिए निकल पड़ा। वहां जहाज खड़ा था। मैं सामान के साथ उस पर सवार हुआ और लंबी यात्रा के बाद सरान द्वीप पहुंचा। मेरे आने की सूचना मिलते ही सरान द्वीप के बादशाह मेरे सामने आए। मैंने अपना परिचय दिया। बादशाह मुझे पहचान गए और मेरा कुशल-मंगल पूछा। मैंने उनके व्यवहार की प्रशंसा की और खलीफा की ओर से भेंट स्वरूप भेजे गए सामान उन्हें सौंप दिए।
खलीफा ने सरान के बादशाह के लिए जो उपहार भेजे थे, उसमें कई कीमती वस्तुएं थी। सामान में एक लाल रंग का बेहद खूबसूरत कालीन था। जिसकी कीमत चार हजार दीनार थी। उस पर बहुत सुंदर सुनहरा काम किया हुआ था। एक प्याला माणिक का था। जिसमें शेर का शिकार करते मनुष्य का चित्र अंकित था। उपहार में एक राजसिंहासन भी था, जो अनगिनत बहुमूल्य रत्नों से जड़ा हुआ था। यह सिंहासन हजरत सुलेमान के तख्त को भी मात देता था। उपहारों के बाद बादशाह ने खलीफा की ओर से भेजे गए संदेश पत्र को पढ़ा।
खलीफा ने पत्र में लिखा था, ‘आपको अब्दुल्ला हारूं रशीद, का प्रणाम। हमें आपका पत्र और उपहार प्राप्त हुआ। आपका धन्यवाद। हम हमारी ओर से कुछ उपहार भेज रहे हैं। स्वीकार करें। मेरा पत्र पढ़कर आपको पता लगेगा कि मेरे मन में आपके लिए कितना प्रेम और मान-सम्मान है।’
सरान का बादशाह पत्र पढ़कर बेहद खुश हुआ। मैंने अपना काम कर दिया था, इसलिए मैंने उनसे विदा मांगी। बादशाह ने पहले तो साफ मना कर दिया, लेकिन मेरे कई बार आग्रह करने के बाद वह राजी हो गया। उन्होंने सम्मान, उपहारों और इनामों के साथ विदाई दी। मैं जहाज पर लौटा और कप्तान से बोला, ‘मुझे जल्द से जल्द बगदाद पहुंचना है।’ कप्तान मेरी इच्छा अनुसार जहाज तेज चला रहा था। करीब तीन-चार दिनों की यात्रा के बाद एक रोज अनहोनी हुई। हमारे जहाज को कुछ समुद्री लुटेरों ने घेर लिया। हम डर गए। लुटेरों ने हमारी सारी धन-संपत्ति लूट ली और हमें बंधक बना लिया। जिन-जिन लोगों ने हमें बचाने की कोशिश की, खतरनाक लुटेरों ने उन सभी को मार डाला। बदमाश लुटेरों ने हमें गुलाम जैसे कपड़े पहनाकर दूर द्वीप में बेच दिया।
मुझे एक अमीर व्यापारी ने खरीदा। वह मुझे अपने साथ घर ले गया। व्यापारी मेरे बारे में कुछ नहीं जानता था। एक दिन वह व्यापारी मुझसे मेरे बारे में पूछताछ करने लगा। वह मुझसे सवाल-जवाब करने लगा कि मुझे कोई काम आता है या नहीं। मैंने उसे अपने और अपनी यात्राओं के बारे में बताया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह बोला, ‘तीर चलाना जानते हो?’ मैंने कहा, ‘बचपन में चलाया करता था।’ यह सुनकर वह उठा और मेरे हाथ में तीर-धनुष पकड़ा दिया। उसके बाद वह मुझे शहर से दूर एक जंगल में ले गया। वहां एक पेड़ था, जिस पर उसने मुझे चढ़कर बैठने को कहा और साथ में उसने यह भी बोला कि मुझे हाथियों का शिकार करना है।
उसके जाते ही मैं पेड़ पर चढ़ गया और रात भर वहीं रहा। अगले दिन सवेरे वहां हाथियों का झुंड पहुंचा। मैं डर गया और एक के बाद एक कई सारे तीर मारने लगा। तीर एक हाथी को लग गया और वह जमीन पर गिर पड़ा। उसे घायल देख अन्य हाथी वहां से भाग खड़े हुए। फिर मैं शहर अपने मालिक के पास लौटा। मैंने उसे सारी बात बताई। मैंने कहा, ‘मेरी तीर से एक हाथी गिरा है।’ व्यापारी यह सुन बेहद खुश हुआ। उसने मुझे तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान खिलाए। अगले दिन हम दोनों जंगल में गए और हमने मरे हुए हाथी को दफना दिया। व्यापारी बोला, ‘कुछ दिनों बाद वापस आकर इसके दांत निकाल लेना क्योंकि हाथी के दांत अनमोल होते हैं।’
तकरीबन दो महीने तक मैं व्यापारी के साथ ही रहा। मैं आए दिन पेड़ पर चढ़ता, हाथियों का शिकार करता। एक रोज की बात है, मैं पेड़ पर ही बैठा था कि तभी हाथियों का विशाल झुंड पहुंचा। मैंने तीर चलाया, लेकिन तीर किसी हाथी को नहीं लगा। धीरे-धीरे झुंड मेरे करीब आने लगा। उनके चलने से ऐसा लग रहा था, मानों भूकंप आ रहा हो। हाथियों ने उस पेड़ को घेर लिया जिस पर मैं चढ़ा हुआ था। मैं काफी ज्यादा डर गया था। हाथियों ने मुझे देख लिया और पेड़ उखाड़ने लगे। इतने में तीर-कमान मेरे हाथ से छूट गया। मैं धरती पर गिर पड़ा। तभी एक हाथी ने अपनी सूंड़ से मुझे उठाया और अपनी पीठ पर रख लिया।
मैं घबराया हुआ था और हाथी की पीठ पर बेहोश पड़ा था। वह मुझे लेकर आगे-आगे चलने लगा और अन्य हाथी उसके पीछे-पीछे चलने लगे। वे मुझे एक सुनसान मैदान में ले गए और उतार दिया। कुछ ही देर में सभी हाथी गायब हो गए। कुछ दूर पर मुझे एक बड़ा गड्ढा दिखा। मैं करीब गया, तो देखा कि वहां हाथियों की अस्थियों का ढेर लगा हुआ है। मैंने मन ही मन सोचा कि हाथी कितने बुद्धिमान जीव होते हैं। हाथियों को मालूम था कि मैं दांत के लिए उनका शिकार करता हूं, इसलिए वे मुझे यहां लेकर आए, ताकि मैं मरे हुए हाथियों के दांत ले जाऊं और उन्हें न छोड़ दूं।
मैं कुछ देर वहां ठहरा और फिर वापस मालिक के पास लौट आया। रास्ते में मुझे एक भी हाथी नहीं दिखा। ऐसा लगा मानों हाथी यह इलाका छोड़ कहीं और बस गए हो। खुद से बातें करते हुए मैं व्यापारी के सामने पहुंचा। मुझे देख वह चिल्लाने लगा, ‘अरे सिंदबाद तुम अब तक कहां थे? मैं तुम्हारी चिंता में मरा जा रहा था। तुम्हें खोजता हुआ जंगल पहुंचा, तो देखा कि तीर-कमान जमीन पर गिरे थे और पेड़ उखड़ा हुआ था। मुझे तो लगा तुम मर चुके हो।’
मैंने व्यापारी को कहा, ‘मैं ठीक हूं।’ मैंने उसे अपनी पूरी कहानी बताई। साथ ही उस गड्ढे के बारे में भी बताया, जहां हाथी मुझे लेकर गए थे। यह सुन व्यापारी बहुत खुश हुआ और गड्ढे तक जाने की इच्छा जताई। मैं उसे वहां ले गया। वहां कई हाथियों के दांत मिले। व्यापारी बहुत खुश हुआ। हम दोनों शहर लौट आए। एक रोज व्यापारी मुझसे बोले, ‘आज से तुम मेरे नौकर नहीं हो। तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। तुम्हारे कारण मेरे पास खूब सारा धन जमा हो गया है।’ व्यापारी बोला, ‘मैंने तुमसे एक बात छुपाई है। अब तक हाथियों ने मेरे कई गुलामों को मार डाला था। तुम एकमात्र हो, जो उनके बीच से जिंदा लौट पाए हो। तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम्हारे कारण केवल मैं ही नहीं, बल्कि शहर के अन्य व्यापारी भी अमीर हो जाएंगे। आज से नहीं, बल्कि अभी से मैं तुम्हें आजाद करता हूं। साथ ही भेंट स्वरूप धन-दौलत भी देता हूं।’
मैंने हाथ जोड़ लिए और बोला, ‘आप मेरे मालिक हैं। भगवान आपको लंबी उम्र दे। मैं आपका आभारी हूं, जो आपने मुझे उन समुद्री लुटेरों से बचाया। मेरा भाग्य अच्छा था, जो मैं आपके पास बिका। मेरी एक इच्छा पूरी कर दीजिए। मुझे मेरे देश पहुंचा दीजिए।’ व्यापारी बोला, ‘तुम धीरज रखो। तुम्हारे देश की ओर जाने वाला जहाज यहां आते ही हम तुम्हें भिजवा देंगे।’
उस रोज से हर दिन मैं अपने देश के जहाज आने का इंतजार करने लगा। इस बीच मैं कई बार जंगल भी गया और हाथियों के दांत लाकर व्यापारी को दिए। दांतों की खरीदी के लिए कई जहाज वहां आने लगे। एक रोज व्यापारी ने मुझे कई हाथी के दांत दिए और मेरे देश से आए एक जहाज पर मुझे चढ़ा दिया। व्यापारी ने रास्ते के लिए मुझे खाने का सामान भी दिया। मैंने उनसे विदाई ली और कई द्वीपों की यात्रा करता हुआ फारस बंदरगाह पर पहुंचा। वहां से सड़क के रास्ते का सहारा लेकर मैं बसरा आया और अपने साथ लाए हाथियों के दांत वहां बेच दिए। इसके बाद कुछ खरीदारी कर मैं बगदाद लौट आया।
बगदाद लौटते ही मैं खलीफा के दरबार पहुंचा। मुझे देख खलीफा बेहद खुश हुआ। उसने कहा, ‘मैं हर रोज तुम्हारी मंगल कामना की प्रार्थना किया करता था।’ मैंने उसे अपने साथ हुई घटनाएं बताई। हाथियों का अनुभव सुनकर खलीफा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने अपने लेखक को आदेश दिया कि मेरे साथ हुए बीते दिनों की घटनाओं के बारे में सुनहरे अक्षरों में लिखे और अभिलेखागार में रखे। खलीफा ने मुझे ढेर सारा इनाम देकर विदा किया।
अपनी यात्रा की अंतिम कहानी को खत्म करते हुए सिंदबाद ने कहा, ‘मित्रों इसके बाद मैं कभी किसी यात्रा पर नहीं गया। अब तक जो भी धन मैंने कमाए उनके सहारे ही जीवन जी रहा हूं। उसने हिंदबाद से कहा, ‘अब तुम ही बताओ क्या ऐसा कोई इंसान है, जिसने मुझसे अधिक मुश्किलों का सामना किया है?’ यह सुनने के बाद हिंदबाद उठ खड़ा हुआ उसने सम्मानपूर्वक सिंदबाद का हाथ चूमा और कहा, ‘सच कहूं तो इन सात समुद्री यात्राओं के दौरान आपने जितना संकट झेला और बार-बार अपने प्राणों की रक्षा की है, इतनी शक्ति किसी में नहीं है। मैं अब तक अपनी स्थिति पर रोता था और आपकी सुख-सुविधाओं से जलता था, लेकिन अब मैं भगवान का लाख-लाख शुक्रिया करता हूं कि उन्होंने मुझे मेरे परिवार के बीच सुरक्षित रखा है। वास्तव में जो सुख आप अभी भोग रहे हैं, वह आपका अधिकार है। मेरी भगवान से प्रार्थना है कि आप हमेशा खुश रहें और आपका मान-सम्मान यूं ही बना रहे।
आखिर में सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनार देते हुए कहा, ‘अब तुम मेहनत-मजदूरी करना छोड़ दो और मेरे लिए काम करना शुरू कर दो। मैं पूरी जिंदगी तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का भरण-पोषण करूंगा।’ हिंदबाद ने सिंदबाद की बात मान ली और अपना आगे का जीवन आनंद से गुजारने लगा।
तो ये थी सिंदबाद की आखिरी कहानी। ऐसे ही रोचक कहानियां पढ़ने के लिए जुड़े रहिए मॉमजंक्शन से।
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