दूसरे बूढ़े ने अपनी कहानी शुरू की। उसने बताया, ‘ये दोनों कुत्ते मेरे सगे भाई हैं। पिताजी ने मरते वक्त हम तीनों भाइयों को तीन हजार अशर्फियां दी थी। हम उससे व्यापार चलाने लगे। मैंने एक दुकान खोल ली और मेरे बड़े भाई को विदेश में व्यापार करने का मन हुआ तो वे अपनी संपत्ति बेचकर सारे रुपयों के साथ विदेश चले गए। लगभग एक साल बाद मेरी दुकान पर एक भिखारी आया और बोला, ‘भगवान तुम्हारा भला करे।’ मैंने उसे बिना देखे कहा
‘भगवान तुम्हारा भी भला करे।’ इतने में भिखारी पूछा, ‘क्या तुमने मुझे पहचाना?’ मैं उसकी ओर पलटा और उसे देखते ही रोने लगा। मैंने कहा ‘भैया तुम्हारी ये दशा कैसे हुई?’ उन्होंने मुझे सारी विपदा सुनाई। मैं मौन रहा, दुकान बंद की और भैया को लेकर घर आ गया।
घर पहुंचकर मैंने भैया को नहलाया, अच्छे कपड़े दिए और पेट भर खाना खिलाया। भैया की मदद के लिए मैंने अपनी तिजोरी खोली उसमें छह हजार रुपये थे। मैंने सोचा इसमें से आधे भैया को देता हूं और आधे अपने पास रख लेता हूं। मैं भैया के पास गया और कहा ‘पिछला नुकसान भूल जाओ भैया और उन रुपयों से नया व्यापार शुरू करो।’ भैया ने रुपये ले लिए और मेरा धन्यवाद किया।
कुछ महीनों बाद मेरे छोटे भाई की इच्छा हुई कि वह विदेश में व्यापार करे। मैंने उसे मना किया लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। गांव का सारा माल बेचकर उसने रुपये जमा किए और विदेश चला गया। कुछ सालों बाद वह भी बड़े भैया की तरह फकीर बनकर लौटा। वह मेरे पास आकर रोने लगा। मैंने बड़े भाई की तरह उसकी भी मदद की। उसने नगर में ही व्यापार शुरू किया और हम सब वापस हंसी-खुशी रहने लगे।
धीरे-धीरे कई साल बीत गए। फिर एक रोज मेरे दोनों भाइयों ने कहा, ‘हम सभी को विदेश जाकर व्यापार करना चाहिए।’ मैंने साफ इनकार किया और कहा ‘तुम दोनों विदेश गए थे न व्यापार करने, क्या फायदा हुआ जो मुझे भी चलने कह रहे हो।’ दोनों भाई जिद पर अड़ गए और कहने लगे कि शायद इस बार तुम्हारे भाग्य से हमारा व्यापार चल पड़े इसलिए हमारी भलाई के लिए चले चलो। रोज इस बात पर बहस होने लगी। मैं मना करता और वे चलने को कहते। ऐसे करते-करते पांच साल बीते फिर तंग आकर मैंने उनकी बात मान ली।
उस समय मेरे पास मात्र बारह हजार रुपये थे। मैं भाइयों के पास गया और बोला, ‘समझदारी इसी में है कि हम अपना आधा धन व्यापार में लगाएं और आधे को भविष्य के लिए बचाए रखें। यदि आगे चलकर कोई अनहोनी हुई तो कम से कम हमें खाने के लाले नहीं पड़ेंगे।’ मैंने तीन-तीन हजार दोनों भाइयों को दिए, खुद तीन हजार लिए और बाकी तीन हजार रुपयों को घर में एक गड्ढा खोदकर उसमें दबा दिया। अगले दिन सुबह होते ही हम तीनों व्यापार के लिए विदेश रवाना हो गए। हम एक नगर में पहुंचे और काम शुरू किया। किस्मत ने साथ दिया और हमें कुछ ही महीनों में खूब मुनाफा हुआ।
एक रोज हम जहाज में सफर कर रहे थे उस दौरान अत्यंत सुंदर स्त्री फटे-पुराने कपड़े पहने मेरे पास आई। उसने जमीन पर गिरकर मुझे सलाम किया और मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। उसने निवेदन पूर्वक कहा, ‘आप मुझसे विवाह कर मुझे धन्य कर दीजिए।’ मैंने साफ इनकार किया लेकिन वह लगातार मिन्नतें करती रही। मुझे उस पर दया आ गई और मैंने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि वह केवल सुंदर ही नहीं बल्कि अत्यंत बुद्धिमति भी है, जिस कारण मैं उससे प्रेम करने लगा। मुझे देखकर मेरे भाइयों को मुझसे ईर्ष्या होने लगी। वे मेरी जान के दुश्मन हो गए।
मेरे भाइयों में द्वेष इस कदर भर गया कि एक रोज उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को समुद्र में फेंक दिया। हम डूब ही रहे थे तभी न जाने कहां से मेरी पत्नी के अंदर अलौकिक शक्ति आई और वह सहारा देकर मुझे एक द्वीप पर लेकर आई। मैं बेहोश था। घंटों बाद जब होश आया तो मैंने उससे पूछा कि हम कहां है? पत्नी बोली, ‘मेरे कारण तुम्हारी जान बची है। मैं वास्तव में परी हूं। तुम्हारे तेज और यौवन को देखकर मैं तुम पर मोहित हो गई थी और तुमसे विवाह करने का फैसला किया। तुम बहुत अच्छे हो लेकिन तुम्हारे भाई बुरे मनुष्य हैं। अत: मैं उन्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी।
मैं उसकी सारी बातें सुनता रहा और जान बचाने के लिए उसका आग्रह किया। मैंने कहा, ‘प्रिय तुम्हारा बहुत-बहुत उपकार लेकिन एक विनती करना चाहता हूं। मेरे भाइयों को जान से मत मारो।’ मैं उसे बार-बार समझाता रहा लेकिन उसका क्रोध बढ़ता गया। उसने झटके से मुझे उठाया और मेरे घर पर छत पर उतारकर कहीं गायब हो गई। मैं मकान के भीतर गया और गड्ढे में दबे रुपये निकाले। इन रुपयों से मैंने अपने लिए कुछ व्यापार शुरू करने और गुजर-बसर करने की ठानी। रुपये लेकर जैसे ही मैं दुकान के पास आया तो मैंने देखा कि वहां दो काले कुत्ते बैठे हैं। मुझे देखते ही वे मेरे पास आए और मेरे पांव में सिर रखकर लोटने लगे।
मैं ये सब समझ पाता इससे पहले ही परी मेरे सामने दोबारा प्रकट हुई और बोली ‘इन कुत्तों को देखकर घबराना मत, ये तुम्हारे भाई हैं।’ उसके शब्द सुनते ही मैं स्तब्ध रह गया और पूछा ऐसा कैसे हुआ। वह बोली ‘मेरे बहन ने इन्हें यह रूप दिया है। तुम्हारे भाई आने वाले दस सालों तक ऐसे ही रहेंगे।’ इतना कहते ही परी अंतर्ध्यान हो गई। किसी तरह दस साल बीत गए हैं इसलिए मैं इन दोनों को लेकर जंगल की ओर आया हूं। बुजुर्ग की कहानी खत्म हुई और बोला ‘हे दैत्यराज! अब बताइये ये कहानी विचित्र लगी या नहीं?’ दैत्य बोला ‘वास्तव में आपकी कहानी बड़ी अद्भुत है। अपने वादे अनुसार मैं व्यापारी के अपराध का एक तिहाई भाग माफ करता हूं।’ इस पर तीसरा बूढ़ा बोला ‘दैत्यराज मैं भी आपको अपनी आपबीती सुनाना चाहता हूं लेकिन मेरी भी यही शर्त है कि अगर कहानी अद्भुत हुई तो आई व्यापारी के अपराध का एक तिहाई अंश माफ कर देंगे।’ दैत्य ने बात स्वीकार ली।
कहानी में आगे क्या हुआ? तीसरे बूढ़े ने कौन सी कहानी सुनाई? क्या व्यापारी का अपराध माफ हुआ इन सवालों के जवाब जानने के लिए जरूर पढ़ें कहानी का अगला अंश…
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